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सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की समय सीमा तय की

Raman Deep Kharyana :-


नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में बड़ा फैसला सुनाया है. शीर्ष अदालत ने इस संबंध में राष्ट्रपति को फैसला लेने के लिए तीन महीने की समय सीमा तय कर दी है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस अवधि से अधिक देरी होने पर उचित कारण बताए जाने चाहिए और संबंधित राज्य को इसकी जानकारी दी जानी चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति को तीन महीने की अवधि तय कर दी. यह फैसला तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि से जुड़े एक मामले के संबंध में आया. अदालत ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि की इस कार्रवाई को अवैध और गलत घोषित किया.

राज्यपाल आर एन रवि द्वारा 10 विधेयकों को नवंबर 2023 में राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजा गया जबकि राज्य विधानसभा उन पर पहले ही पुनर्विचार कर चुकी थी. न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने कहा कि राज्यपाल के पास किसी विधेयक पर 'पूर्ण वीटो' का प्रयोग करने का अधिकार नहीं है, 'हमें कोई कारण नहीं दिखता कि यही मानक अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति पर भी लागू क्यों नहीं होगा.'

पीठ ने अपने 415 पन्नों के फैसले में कहा, 'राष्ट्रपति इस डिफॉल्ट नियम का अपवाद नहीं है जो हमारे पूरे संविधान में व्याप्त है. ऐसी बेलगाम शक्तियां इन संवैधानिक पदों में से किसी में भी नहीं रह सकतीं.'


पीठ की ओर से फैसला लिखने वाले न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा कि बिना किसी औचित्य या आवश्यकता के अनुच्छेद 201 के तहत संदर्भ पर निर्णय लेने में राष्ट्रपति की ओर से की गई देरी, इस बुनियादी संवैधानिक सिद्धांत के विरुद्ध होगी कि शक्ति का प्रयोग मनमाना और स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए.


न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा, 'निष्क्रियता के परिणाम गंभीर प्रकृति के हैं और संविधान के संघीय ढांचे के लिए हानिकारक हैं. इसलिए अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति की ओर से अनावश्यक देरी की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए.'

पीठ ने कहा, 'हालांकि हम इस तथ्य से परिचित हैं कि अनुच्छेद 201 के तहत अपनी शक्तियों का निर्वहन करते हुए राष्ट्रपति से विधेयक पर 'विचार' करने की अपेक्षा की जाती है. इस तरह के 'विचार' को सख्त समय सीमा में बांधना कठिन हो सकता है, फिर भी यह राष्ट्रपति की ओर से निष्क्रियता को उचित ठहराने का आधार नहीं हो सकता है.'

पीठ ने कहा कि तीन महीने के भीतर निर्णय महत्वपूर्ण है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के निर्णय के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस अवधि से अधिक देरी होने पर उचित कारण दर्ज किए जाने चाहिए. संबंधित राज्य को इसकी जानकारी दी जानी चाहिए. पीठ ने कहा कि यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि अदालतें ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करने में असमर्थ नहीं होंगी. जहां संवैधानिक प्राधिकरण द्वारा उचित समय के बिना कार्य नहीं किया जा रहा हो.


सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 201 की उन विशेषताओं पर विस्तार से प्रकाश डाला जो वर्षों से केंद्र-राज्य संबंधों में मतभेदों का कारण रही है. पीठ ने कहा कि राज्यपाल द्वारा विधेयक को विचारार्थ सुरक्षित रखे जाने के बाद राष्ट्रपति को अनुच्छेद 201 के तहत मंजूरी देने या न देने की घोषणा करने के लिए कोई समय-सीमा नहीं है.

पीठ ने कहा, 'अनुच्छेद 201 के तहत किसी विधेयक को अनिवार्य रूप से मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति पर कोई बाध्यता नहीं है. यदि राज्यपाल अपने विवेक से कार्य करते हुए किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर देता है, तो इससे राज्य विधानसभा द्वारा विधेयक को पारित करना निरर्थक हो जाएगा. यदि राष्ट्रपति उस विधेयक को अपने पास लंबित रखते हैं या ऐसे विधेयक को मंजूरी देने से मना कर देते हैं.'

पीठ ने कहा कि सरकारिया आयोग ने पाया कि राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित विधेयकों के शीघ्र निपटान में देरी केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव का एक प्रमुख कारण है. पीठ ने कहा कि इसने यह भी सिफारिश की है कि अनुच्छेद 201 के तहत संदर्भों के निपटान की सुविधा के लिए निश्चित समय सीमा अपनाई जानी चाहिए. पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 201 में समय सीमा निर्धारित करने का सुझाव पुंछी आयोग ने भी दिया था.

1983 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर एस सरकारिया की अध्यक्षता में सरकारिया आयोग का गठन किया गया था. इसका उद्देश्य संघ और राज्यों के बीच मौजूदा व्यवस्थाओं के कामकाज की समीक्षा करना था. पुंछी आयोग भी केंद्र-राज्य संबंधों पर था और 2007 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम एम पुंछी के नेतृत्व में इसकी स्थापना की गई थी.

पीठ ने राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए रखे राज्य विधेयकों के शीघ्र निपटान के संबंध में भारत सरकार के सभी मंत्रालयों और विभागों को 4 फरवरी 2016 को गृह मंत्रालय द्वारा जारी कार्यालय ज्ञापन (ओएम) का भी हवाला दिया.

पीठ ने कहा, 'उपर्युक्त बातों के अवलोकन से यह भी स्पष्ट होता है कि राष्ट्रपति के लिए रखे गए विधेयकों पर निर्णय के लिए तीन महीने की समय-सीमा निर्धारित की गई है. तत्काल प्रकृति के अध्यादेशों के निपटान के लिए तीन सप्ताह की समय-सीमा निर्धारित की गई है.'

न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा, 'इसलिए हम गृह मंत्रालय द्वारा उपरोक्त दिशा-निर्देशों में निर्धारित समय-सीमा को अपनाना उचित समझते हैं. निर्धारित करते हैं कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा उनके विचारार्थ भेजे गए विधेयकों पर तय समय सीमा के भीतर निर्णय लेना आवश्यक है.'

पीठ ने कहा कि राज्यों को भी सहयोगात्मक रवैया अपनाना चाहिए और उठाए जा सकने वाले प्रश्नों के उत्तर देकर सहयोग करना चाहिए तथा केंद्र सरकार द्वारा दिए गए सुझावों पर शीघ्रता से विचार करना चाहिए.

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