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सीईटी का मेला: पढ़े-लिखे युवाओं का अपमान और सरकार की बेरोजगारी उत्सव

Raman Deep Kharyana :-

हरियाणा के 13 लाख पढ़े-लिखे बेरोजगारों के लिए सीईटी परीक्षा एक सुनहरा मौका नहीं, बल्कि एक और छलावा है।

पीएचडी से लेकर बीटेक तक के युवा चपरासी बनने को तैयार हैं और सरकार इसे पारदर्शिता का महाकुंभ बता रही है। तीन लाख पद खाली हैं, लेकिन नियुक्ति नहीं हो रही। ओवरऐज हो चुके युवाओं की आवाज़ अनसुनी है।

ये बेरोजगारी का मेला नहीं, शोषण की बारात है। सरकारों की नीतिगत विफलता और विपक्ष की चुप्पी युवाओं को तमाशबीन बना रही है। अगर यह न रुका तो यह सामाजिक विफलता एक विस्फोटक जनआक्रोश में बदल सकती है।


 प्रियंका सौरभ

हरियाणा में आजकल एक शब्द बड़ी श्रद्धा से बोला जा रहा है — सीईटी, यानी कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट। नाम ऐसा जैसे युवाओं के लिए अवसरों की गंगा बहने जा रही हो, लेकिन हकीकत ये है कि यह गंगा युवाओं को अपने ही सपनों के किनारों से बहाकर बेरोजगारी के समुद्र में डुबो रही है।


यह विडंबना नहीं, एक क्रूर मज़ाक है कि जिस प्रदेश के 13 लाख से ज्यादा पढ़े-लिखे युवा नौकरी के इंतज़ार में हैं, वहां सरकार परीक्षा के नाम पर जुलूस निकाल रही है। इनमें इंजीनियर हैं, डॉक्टर हैं, पीएचडी होल्डर हैं, लॉ ग्रेजुएट्स हैं — और ये सब अपनी योग्यता को भूलकर, चपरासी बनने की कतार में खड़े हैं।


ये मेला नहीं, बेरोजगारी की बारात है


सरकार इसे व्यवस्था की पारदर्शिता का उदाहरण बताती है, लेकिन सवाल यह है कि क्या पढ़े-लिखे नौजवानों की बेबसी का उत्सव मनाना भी एक सरकारी नीति है? सड़कें बंद हैं, धूप में हजारों युवा परीक्षा केंद्रों की ओर जा रहे हैं, और परीक्षा का आयोजन कुछ यूं किया गया है मानो कोई महाकुंभ चल रहा हो। लेकिन वहां श्रद्धा नहीं, विवशता है।


क्या यह गर्व की बात है कि पीएचडी होल्डर युवा ग्रुप डी की नौकरी के लिए मर-मिट रहे हैं? क्या यह नहीं दर्शाता कि देश और प्रदेश की शिक्षा प्रणाली को सरकार ने केवल बेरोजगारी पैदा करने वाली मशीन बना दिया है?


सरकार का असली काम क्या है?


सरकारें परीक्षाएं आयोजित करने के लिए नहीं, बल्कि नौकरियां देने के लिए होती हैं। ये तनख्वाहें इस बात की नहीं मिलतीं कि आप कितने अच्छे आयोजनकर्ता हैं, बल्कि इस बात की मिलती हैं कि आपने कितनों को रोज़गार दिया।


हरियाणा में करीब तीन लाख सरकारी पद खाली हैं, लेकिन सरकार युवाओं से यह नहीं कहती कि “हम तुम्हें नौकरी देंगे”, बल्कि कहती है — “आओ, परीक्षा दो, चयन का चक्रव्यूह पार करो, शायद कोई एक सीट तुम्हारी हो जाए।”


इतनी विशाल संख्या में आवेदन और सिर्फ कुछ हजार सीटें — ये तो उस भूखे की थाली जैसी है जिसमें दर्जनों हाथ टूट पड़ते हैं और एक रोटी गिरने पर लोग लड़ते हैं।


“बिना पर्ची खर्ची” का ढकोसला


11 साल से भाजपा हरियाणा में सत्ता में है। वह बार-बार दावा करती है कि अब नौकरियां बिना पर्ची और खर्ची के मिलती हैं। यह वाक्य अब राजनीतिक प्रचार की ध्वनि से अधिक कुछ नहीं लगता।


कोई पूछे कि “बिना पर्ची खर्ची” कितने लोगों को सरकारी नौकरी मिली है, वो भी दस्तावेज़ों के साथ? और जिनके पास पर्ची और खर्ची थी, क्या वे पीछे रह गए? अगर ऐसा है तो यह बताइए कि अधिकारियों के रिश्तेदार और नेताओं के परिवारजनों को कैसे नियुक्तियां मिल रही हैं?


ओवरऐज हो चुके सपने


हर बार परीक्षा की तारीखें खिसकती हैं, परिणाम लटकते हैं, नियुक्तियां टलती हैं और तब तक सैकड़ों युवा उम्र की सीमा पार कर जाते हैं। क्या सरकार को इसकी कोई जवाबदेही नहीं बनती? क्या ये युवा सिर्फ इसलिए योग्य नहीं हैं क्योंकि सरकार समय पर नौकरी नहीं दे पाई?


इन युवाओं के लिए अब कोई विकल्प नहीं है। प्राइवेट सेक्टर में ठेके की नौकरियां, बगैर सुरक्षा, बगैर स्थायित्व, और बगैर सम्मान के मिलती हैं। जो लोग किसी समय देश का निर्माण करने वाले बनने की सोच रखते थे, वे अब दैनिक वेतन भोगी बनने को मजबूर हैं।


पक्ष-विपक्ष की चुप्पी


अचरज की बात यह है कि इस भीषण संकट पर विपक्ष भी चुप है। सत्ता पक्ष का मौन समझ में आता है, लेकिन विपक्ष की चुप्पी इस बात का संकेत है कि वे भी इस दर्द में शरीक नहीं होना चाहते। शायद इसलिए कि सत्ता में आते ही वे भी उसी ढांचे का हिस्सा बन जाएंगे, जिसे अब वे बदलने का ढोंग करते हैं।


आज हरियाणा का युवा ठगा हुआ है, लुटा हुआ है। और वह सिर्फ बेरोजगार नहीं है, उपेक्षित है, अपमानित है। उसका आत्म-सम्मान, उसकी योग्यता और उसकी मेहनत सबकुछ दांव पर लगा है — सिर्फ इसलिए कि सरकारें उसे नौकरी देने की बजाय परीक्षाएं आयोजित करने में व्यस्त हैं।


पढ़ाई या परीक्षा? — असली जाल यही है


जो बीटेक पढ़ा है, वो पेपर दे रहा है चपरासी बनने का। जो पीएचडी कर चुका है, वो ग्रुप डी के लिए आवेदन दे रहा है। ये क्या संकेत देता है? यही कि शिक्षा का कोई मूल्य नहीं बचा, जब तक वह नौकरी में नहीं बदलती।


सरकार यह नहीं बताती कि उसने कितनी फैक्ट्रियां खोलीं, कितने रोजगार सृजित किए, बल्कि बताती है कि हमने पारदर्शिता से परीक्षा ली। पारदर्शिता से भूखा आदमी रोटी नहीं खा सकता। नौकरी चाहिए। और वह संविधान में उल्लेखित मूल अधिकार है।


जनता: तमाशबीन या बलि का बकरा?


सबसे बड़ा सवाल यही है कि इतनी बार ठगे जाने के बाद भी युवा क्यों भरोसा करते हैं इस परीक्षा नामक माया जाल पर? क्यों हर बार हजारों रुपए खर्च कर फॉर्म भरते हैं, कोचिंग करते हैं, किराए पर कमरे लेते हैं?


क्यों नहीं कोई यह सवाल करता कि क्या सरकारें इतनी असंवेदनशील हो सकती हैं कि युवाओं की ज़िन्दगी को सिर्फ परीक्षा केन्द्र समझ लें?


जनता को समझना होगा कि ये मजमा बेरोजगारी का उत्सव नहीं, बल्कि लोकतंत्र की नाकामी का आईना है। सीईटी जैसी परीक्षाएं सिर्फ छंटनी का उपकरण हैं, न कि समाधान।


आज हरियाणा में बेरोजगारी आंकड़ों से बाहर निकल कर एक जीवित दुःस्वप्न बन चुकी है। जिस प्रदेश में पढ़े-लिखे युवा चपरासी बनने के लिए लाइन में खड़े हैं, वहां जश्न नहीं, चिंता होनी चाहिए।


सरकारें बदलें या न बदलें, लेकिन सोच बदलनी चाहिए। युवाओं को सिर्फ परीक्षा नहीं, सम्मानजनक रोजगार चाहिए। वरना ये बेरोजगारों की भीड़ धीरे-धीरे असंतोष में बदलेगी — और तब कोई सीईटी नहीं, कोई आयोग नहीं, कोई सरकार नहीं — उस जनाक्रोश को रोक नहीं पाएगी।


सीईटी का मेला: पढ़े-लिखे युवाओं का अपमान और सरकार की बेरोजगारी उत्सव

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